Friday, February 28, 2020

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये


हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये 
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये 

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है दफ़्न है जो बात,
अब उस बात को मत छेड़िये 

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले 
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये 

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ मिट गये सब, 
क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये 

छेड़िये इक जंग, 
मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़ दोस्त, 
मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
- अदम गोंडवी

Thursday, February 27, 2020

हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हँ मैं


हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं
भीड़ बहुत है, इस मेले में खो सकता हूँ मैं

पीछे छूटे साथी मुझको याद आ जाते हैं
वरना दौड़ में सबसे आगे हो सकता हूँ मैं

कब समझेंगे जिनकी ख़ातिर फूल बिछाता हूँ
इन रस्तों पर कांटे भी तो बो सकता हूँ मैं

इक छोटा-सा बच्चा मुझ में अब तक ज़िंदा है
छोटी छोटी बात पे अब भी रो सकता हूँ मैं

सन्नाटे में दहशत हर पल गूँजा करत्ती है
इस जंगल में चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं

सोच-समझ कर चट्टानों से उलझा हूँ वरना
बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं
 आलम खुर्शीद

Saturday, February 22, 2020

टुटा हुआ दिल मेरा फिर से जुड़ रहा था

टुटा हुआ दिल मेरा फिर से जुड़ रहा था 
और तोड़ने वाले की तरफ ही दुबारा झुक रहा था ।

बोल नहीं पाती थी जिसके आगे में कभी उची आवाज में
आज वो मेरी सारी बाते सर झुकाये  सुन रहा था
टुटा हुआ दिल मेरा फिर से जुड़ रहा था ।

दिल मेरा फिर से नए ख्वाब बुन रहा था
और फिर अपने लिए उसी बेवफा को चुन रहा था
यु तोह भरोसा नहीं था मुझे उस पर पहले की तरह
पर फिर भी ये दिमाग था जो सिर्फ दिल की सुन रहा था
टुटा हुआ दिल मेरा फिर से जुड़ रहा था । 

ज़मीन में बिखरा दिल मेरा अब आसमान पे उड़ रहा था
न जाना था जिस गली उसी गली में मुड रहा था
मुद्दतो बाद खुशिया आरही थी ज़िन्दगी में हमारी
पर न जाने कियु इस बात से ज़माना जल रहा था
टुटा हुआ दिल मेरा आज फिर से जुड़ रहा था ।

अपने पहले प्यार से मुझे दुबारा प्यार हो रहा था
और वो अपनी सारी गलतिया स्वीकार कर मेरे आगे रो रहा था
यु तो  वफाये आज भी उतनी ही थी 
मेरे दिल में उसके लिए
पर उसकी  बेवफाइयोंका  जनाज़ा भरे बाजार उठ रहा था 
शायद इसीलिए मेरा टुटा हुआ दिल आज फिर से जुड़ रहा था । 

GOONJ CHAND


Friday, February 21, 2020

सब जाग रहे तू सोता रह ।

सब जाग रहे तू सोता रह,

किस्मत को थामे रोता रह। 

जो दूर है माना मिला नही,

जो पास है वो भी खोता रह।

सब जाग रहे तू सोता रह।


लहरो पर मोती चमक रहे,

झोंके भी तुझ तक सिमट रहे।

न तूफान कोई आने वाला, 

सब तह तक गोते लगा रहे ।

लहरें तेरी कदमों में है,

तू नाव पकड़ बस रोता रह।

सब जाग रहे तू सोता रह।

किस्मत को थामे रोता रह।


धूप अभी सिरहाने है , 

मौसम जाने पहचाने है।

रात अभी तो घंटो है,

बस कुछ पल दूर ठिकाने है।

इतनी दूरी तय कर आया , 

दो पग चलने में रोता है।

सब जाग रहे तू सोता रह।

किस्मत को थामे रोता रह।


माना कि मुश्किल भारी है,

पर तुझमें क्या लाचारी है।

ये हार नही बाहर की है, 

भीतर से हिम्मत हारी है।

उठ रहे यहाँ सब गिर-गिर कर ,

न उठा तू यू ही लेटा रह।

सब जाग रहे तू सोता रह,

किस्मत को थामे रोता रह।


जो दूर है माना मिला नही ,

जो पास है वो भी खोता रह।

सब जाग रहे तू सोता रह।।।।।

= Sandeep Dwivedi ji

Sunday, February 16, 2020

अमीर

ना तुम अपने आप को गले लगा सकते हो,
ना ही तुम अपने कंधे पर सिर रखकर रो सकते हो।
एक दूसरे के लिए जीने का नाम ही जिंदगी है।
इस लिए वक्त उन्हें दो जो  चाहते हो तुम दिलसे।
रिश्ते पैसो के मोहताज नही होते इसलिए कुछ रिश्ते मुनाफ नही देते पर जीवन अमीर जरूर बना देते है।

Tuesday, February 11, 2020

The Impossible Dream Song by Richard Kiley

To dream the impossible dream
To fight the unbeatable foe
To bear with unbearable sorrow
And to run where
The brave dare not go
To right the unrightable wrong
And to love, pure and chaste from afar
To try when your arms are too weary
To reach the unreachable star
This is my quest
To follow that star
No matter how hopeless
No matter how far
To fight for the right
Without question or pause
To be willing to march
March into hell
For that heavenly cause
And I know
If I'll only be true
To this glorious quest
That my heart
Will lie peaceful and calm
When I'm laid to my rest
And the world will be
Better for this
That one man, scorned
And covered with scars
Still strove with his last
Ounce of courage
To reach the unreachable
The unreachable
The unreachable star
And I'll always dream
The impossible dream
Yes, and I'll reach
The unreachable star


( Man of La Mancha, 1966 original Broadway cast ) by Richard Kiley

Sunday, February 9, 2020

I told my son

I told my son: you don’t need to be in the top three in your class, being in the middle is fine, so long as your grades aren’t too bad. Only this kind of person has enough free time to learn other skills. 

Jack Ma


Monday, February 3, 2020

मैं कभी पीछे नहीं लौटूंगी


मैं कभी पीछे नहीं लौटूंगी
मैं वह औरत हूं जो जाग उठी है
अपने भस्म कर दिए गए बच्चों की राख से
मैं उठ खड़ी हुई हूं और
बन गई हूं एक झंझावात
मैं उठ खड़ी हुई हूं
अपने भाइयों की रक्तधाराओं से
मेरे देश के आक्रोश ने मुझे अधिकार-समर्थ बनाया है
मेरे तबाह और भस्म कर दिए गए गांवों ने
दुश्मन के खिलाफ नफरत से भर दिया है।
मैं वह औरत हूं
जो जाग उठी है।
मुझे अपनी राह मिल गई है
और कभी पीछे नहीं लौटूंगी
मैने अज्ञानता के
बंद दरवाजों को खोल दिया है
मैंने सोने की हथकड़ियों को
अलविदा कह दिया है
ऐ मेरे देश के लोगों,
मैं अब वह नहीं, जो हुआ करती थी
मुझे अपनी राह मिल गई है
और कभी पीछे नहीं लौटूंगी।
मैंने देखा है नंगे पांव,
मारे-मारे फिरते बेघर बच्चों को
मैंने मेहंदी रचे हाथों वाली दुल्हनों को देखा है
मातमी लिबास में
मैंने जेल की ऊंची दीवारों को देखा है
निगलते हुए आजादी को अपने मरभुक्खे पेट में
मेरा पुनर्जन्म हुआ है
आजादी और साहस के महाकाव्यों के बीच
मैंने सीखे हैं आजादी के तराने
आखिरी सांसों के बीच,
लहू की लहरों और विजय के बीच
ऐ मेरे देश के लोगों, मेरे भाई
अब मुझे कमजोर और नाकारा न समझना
अपनी पूरी ताकत के साथ मैं तुम्हारे साथ हूं
अपनी धरती की आजादी की राह पर
मेरी आवाज घुल-मिल गई है
हजारों जाग उठी औरतों के साथ
मेरी मुट्ठियां तनी हुई हैं
हजारों अपने देश के लोगों के साथ
तुम्हारे साथ मैंने अपने देश की ओर
कूच कर दिया है
तमाम मुसीबतों की, गुलामी की
तमाम बेड़ियों को
तोड़ डालने के लिए
ऐ मेरे देश के लोगों, ऐ भाई
मैं अब वह नहीं, जो हुआ करती थी
मैं वह औरत हूं, जो जाग उठी है
मुझे अपनी राह मिल गई है
और मैं अब कभी पीछे नहीं लौटूंगी।
मीना किश्वर कमाल


Saturday, February 1, 2020

You Don't Just Need a Daily Routine. You Need a Seasonal Routine Too


These days almost all of us live by the clock. That means our lives are divided into 24-hour chunks and scheduled according to the numbers on our watch or phone at such and such a time we get up, at another we eat lunch, etc. That also means that when we go about trying to improve our routines, we end up changing the time we do things, like checking email later or setting the alarm earlier.

For millions of years we lived by the earth's natural rhythms rather than the rigid schedule of the clock. If we wanted to know when to work, when to sleep, or when to eat, we consulted the sky, the weather, or our bodies, not some abstract number.

A seasonal life is a happier, more productive life

That's an interesting factoid for anthropology class, but what does it have to do with you? In his post, Thomas argues that by ignoring these age-old natural rhythms, we're actually missing a huge opportunity to build a healthier, more humane, and more productive life. Routines, he insists, should take into account seasons as well as minutes and hours, and people should plan with the whole sweep of a year's changes in mind.

"We live in a world of seasons," he writes. "but productivity advice seems to always think in terms of the day, the week, the year, or five years, never the season, the sun, and the shadow."

The alternative, he argues, is to think and plan in terms of seasons as well as days, weeks, years... "To quote Ecclesiastes 3:1, 'To every thing there is a season.' What if we took that adage seriously, not just by buying pumpkin spice lattes but by doing key things in a more fall-like way?" he asks. "The point is to embrace fall in particular and seasonal change in general."

How to embrace seasonal change

What would this sort of 'seasonal routine' look like in real life? Thomas offers several real-life examples for inspiration, including the novelist Lee Child who "sits down every September and begins work on a new Jack Reacher novel. He finishes up sometime the following spring and then spends the rest of the year doing other stuff--stuff like spending the entire month of August on vacation." Thomas points out that, not only does this natural ebb and flow sound delightful, it also results in an impressive level of productivity (a book a year is a hefty output by any writer's standards).

Productivity writer Nicholas Bate suggests seven fall basics: more sleep, more reading, more hiking, more reflection, more soup, more movies, and more night sky. It's a program Thomas can get behind. "Come summer, I'll feel less stress about stopping work early to go to a barbecue or movie because I know, come autumn, I'll be hunkering down," he reflects. "More and more, I try to live in harmony with the seasons, not the clock."

These examples are just inspiration, of course. First of all, because your line of work might not allow for month-long vacations, or your might not be a big fan of soup. But also, more importantly, because the whole point of thinking about seasonal rhythms is to nudge you to pay more attention to what is natural for you and to respect those tendencies rather than being a slave to a fixed routine. No one can tell you what feels "fall-like" to you, so figuring out how to follow Thomas' advice requires self-reflection.

But spending a little time charting your own responses to the changing weather and shorter days might just mean accomplishing more and being happier while doing it.

माझे नवीन लेखन

खरा सुखी

 समाधान पैशावर अवलंबून नसतं, सुख पैशानं मोजता येत नसतं. पण, सुखासमाधानानं जगण्यासाठी पैशांची गरज पडत असतेच. फक्त ते पैसे किती असावेत ते आपल्...