Tuesday, September 20, 2016

मेरे रश्क-ए-क़मर तुने पहली नज़र

मेरे रश्क-ए-क़मर तुने पहली नज़र, जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया
बर्क सी गिर गयी काम ही कर गयी, आग ऐसी लगाईं मज़ा आ गया
जाम में घुल कर हुस्न की मस्तियाँ, चांदनी मुस्कुराई मज़ा आ गया
चाँद के साये में ऐ मेरे साक़िया, तू ने ऐसी पिलाई मज़ा आ गया

नशा शीशे में अंगड़ाई लेने लगा, बज़्म-ए-रिंदा में सागर खनकने लगा
मैकदे पे बरसने लगी मस्तियाँ, जब घटा गिर के छाई मज़ा आ गया

बे-हिज़ाबाना वो सामने आ गए, और जवानी जवानी से टकरा गयी
आँख उनकी लड़ी यूं मेरी आँख से, देख कर ये लड़ाई मज़ा आ गया

आँख में थी हया हर मुलाक़ात पर, सुर्ख आरिज़ हुए वस्ल की बात पर
उसने शर्मा के मेरे सवालात पे, ऐसी गर्दन झुकाई मज़ा आ गया

शैख़ साहिब का ईमान बिक ही गया, देख कर हुस्न-ऐ-साकी पिघल ही गया
आज से पहले ये कितने मगरूर थे, लुट गयी पारसाई मज़ा आ गया

ऐ "फ़ना" शुक्र है आज बाद-ए-फ़ना, उसने रख ली मेरे प्यार की आबरू
अपने हाथो से उसने मेरी कब्र पर, चादर-ऐ-गुल चढाई मज़ा आ गया 
फ़ना बुलंद शहरी

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