Sunday, October 15, 2017

कहानी पूरी फ़िल्मी है,मगर यही तो सच्चाई है ।

किसी भी युद्ध में वायु सेना की काफ़ी अहम भूमिका होती है, लेकिन उनके युद्धबंदी बनने का भी ख़तरा सबसे ज़्यादा होता है। क्योंकि वायु सेना के पायलट दुश्मन की ज़मीन पर जाकर बमबारी करते हैं।
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान वायु सेना के कई पायलट बंदी बनाए गए थे।बंदी सैनिको दिलीप परुलकर भी एक थे। जेल से भागने की महत्वाकांक्षा उनमें वर्षों से थी।और जब उन्हें ऐसा करने का मौक़ा मिला, तो वे न सिर्फ़ जेल को तोड़कर दो अन्य साथियों के साथ भागने में सफल रहे। और बिना किसी परेशानी के अफ़ग़ानिस्तान की सीमा तक पहुँच गए।
लेकिन इस कहानी में मोड़ उस समय आया, जब ये तीनों अफ़ग़ानिस्तान की सीमा में घुसने से पहले ही पकड़ लिए गए। रावलपिंडी जेल से भागने की उनकी कहानी काफ़ी रोमांचक तो है, लेकिन ख़तरनाक भी है।
भागने के बाद जेल में पीछे छूट गए उनके साथियों को समस्याएँ भी झेलनी पड़ी। लेकिन आज भी इस घटना के चालीस साल बाद भी दिलीप परुलकर उतने ही जोश से कहानी बयां करते हैं।
फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट दिलीप परुलकर, फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट हरीश सिंह जी, कमांडर गरेवाल और फ़्लाइंग ऑफ़िसर चटी शुरुआती योजना बनाने लगे। इस योजना में उन्हें अपने साथियों का भी सहयोग मिलने लगा।
अपनी योजना को अंजाम देने के लिए इन चारों ने उस कमरे को चुना, जिसमें सुरंग लगाई जा सकती थी।उनकी योजना के बारे में उनके बाक़ी के साथियों को भी पता था। फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट दिलीप परुलकर के नेतृत्व में उस सेल में सुरंग खोदने का काम शुरू हुआ।
इतना ही नहीं ये लोग ख़ुफ़िया जानकारी के लिए गार्ड्स से ख़ूब बातचीत करते थे। दरअसल भारत और पाकिस्तान में उस समय युद्धविराम हो गया था, इसलिए गार्ड्स से बात करना इनके लिए और आसान हो गया था।
गरेवाल, परुलकर, हरीश सिंहजी और चेटी रात में कमरे की बल्ब फ़्यूज करके फिर चारपाई के नीचे लेटकर दीवार तोड़ने की कोशिश करते थे। इन्हीं में से एक व्यक्ति गार्ड्स की गतिविधियों पर निगरानी रखता था।
लेकिन इन लोगों का अंदाज़ा ग़लत निकला, क्योंकि बाहर का प्लास्टर काफ़ी मज़बूत था। इस प्लास्टर को तोड़ने में इन लोगों को काफ़ी मेहनत करनी पड़ी।
आख़िरकार इन्हें प्लास्टर तोड़ने में सफलता मिली और उन्होंने जेल से भागने की जो तारीख़ चुनी वो थी 13 अगस्त यानी पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले।
जब उन्होंने प्लास्टर पर आख़िरी ज़ोर मारा, तो प्लास्टर टूटा। भाग्य भी इन लोगों के साथ था, क्योंकि उसी दौरान बारिश शुरू हो गई, इसलिए प्लास्टर टूटने की आवाज़ दब गई। साथ ही बाहर निगरानी करने वाले गार्ड्स बरामदे में चले गए थे।
वो चारो दीवार फांदकर सड़क पर पहुँचे। उसी समय पास के सिनेमाघर का मिडनाइट शो ख़त्म हुआ था। एकाएक वहाँ काफ़ी भीड़ हो गई थी। वो चारो भी इस भीड़ के साथ हो लिए और पेशावर की बस पर बैठ गए।
चारों लंडी कोटल तक पहुँच गए।यहाँ तक सब कुछ योजना के मुताबिक़ या यों कहें कि उससे बेहतर ही हुआ। लेकिन यहाँ आकर बात बिगड़ गई। क्योकीं वो चारो कुछ अजीब लग रहे थे। पहले उन्हें बांग्लादेशी समझकर रोका गया। लेकिन उन्ह लोगों ने अपने को पाकिस्तानी एयरफ़ोर्स का जवान बताया। ये भी बताया कि वो ईसाई हैं। फिर उन्ह चारोंको पाकिस्तानी तहसीलदार के कार्यालय में ले जाया गया।
पाकिस्तानी लोगों पर अपना दबदबा क़ायम करने के लिए दिलीप परुलकर ने उन्हें चीफ़ ऑफ़ एयर स्टॉफ़ के एडीसी उस्मान से बात करने को कहा। दरअसल एडीसी उस्मान पहले रावलपिंडी जेल के कैंप कमांडर थे और इन लोगों को जानते थे।
एडीसी उस्मान ने तहसीलदार से कहा कि इन लोगों को कोई हानि नहीं पहुँचनी चाहिए, लेकिन इनको छोड़ना मत। एडीसी उस्मान ने वहाँ के पॉलिटिकल एजेंट को फ़ोन करके ये सारी जानकारी दी।
आख़िरकार उन्हें पॉलिटिकल एजेंट के सामने पेश किया गया, जो कलेक्टर जैसा अधिकारी होता था। उनका नाम मेजर बरकी था। मेजर बरकी ने इन चारो भारतीय युद्धबंदियों को जो बताया, उससे अंदाज़ा लगता है कि ये तीनों पाकिस्तान से भागने से कितने नज़दीक थे।
मेजर बरकी ने हमसे कहा कि वो दुनिया के सबसे दुर्भाग्यशाली लोगों में से हैं, जिनसे वे मिले है। अपनी खिड़की से एक पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि वो अफ़ग़ानिस्तान में है।" उनका इशारा इस ओर था कि आप पाकिस्तान से भागने के कितने नज़दीक थे।
दूसरी ओर अभी तक रावलपिंडी में किसी को ये पता नहीं चल पाया था कि चारो युद्धबंदी भाग चुके हैं। उनके नंदी कोटल में पकड़े जाने के बाद रावलपिंडी जेल में हलचल शुरू हुई।
दिसंबर 1972 में युद्धबंदियों की अदला-बदली के तहत ये लोग भारत पहुँचे।

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