Tuesday, July 16, 2019

बिक रहा है पानी

बिक रहा है पानी ,
पवन बिक न जाए ।
बिक गई धरती ,
गगन बिक न जाए ।

चांद पर भी 
बिकने लगी है जमीं , 
डर है कि सूरज की 
तपन बिक न जाए।

हर जगह बिकने लगी है
 स्वार्थ नीति ,
डर है कि कहीं 
धर्म बिक न जाए ।

देकर दहेज खरीदा गया है 
अब दूल्हे को ,
कहीं उसी के हाथों 
दुल्हन बिक न जाए।

हर काम की रिश्वत
 ले रहे अब ये नेता ,
कहीं इन्ही के हातों
 वतन बिक न जाए।

सरेआम बिकने लगे
 अब बो सांसद ,
डर है कि कहीं 
संसद भवन बिक न जाए।

आदमी मरा तो भी 
आंखें खुली हुईं है ,
डरता है मुर्दा 
कहीं कफन बिक न जाए।





प्रस्तुति –
कु० – पारूल वार्ष्णेय
न्यू ऑक्सफोर्ड कन्या हाई स्कूल नाधा (बदायूं)
कक्षा – आठ

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