बिक रहा है पानी ,
पवन बिक न जाए ।
बिक गई धरती ,
गगन बिक न जाए ।
चांद पर भी
बिकने लगी है जमीं ,
डर है कि सूरज की
तपन बिक न जाए।
हर जगह बिकने लगी है
स्वार्थ नीति ,
डर है कि कहीं
धर्म बिक न जाए ।
देकर दहेज खरीदा गया है
अब दूल्हे को ,
कहीं उसी के हाथों
दुल्हन बिक न जाए।
हर काम की रिश्वत
ले रहे अब ये नेता ,
कहीं इन्ही के हातों
वतन बिक न जाए।
सरेआम बिकने लगे
अब बो सांसद ,
डर है कि कहीं
संसद भवन बिक न जाए।
आदमी मरा तो भी
आंखें खुली हुईं है ,
डरता है मुर्दा
कहीं कफन बिक न जाए।
प्रस्तुति –
कु० – पारूल वार्ष्णेय
न्यू ऑक्सफोर्ड कन्या हाई स्कूल नाधा (बदायूं)
कक्षा – आठ
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