होशियार सिंह का जन्म 5 मई, 1936 को सोनीपत, हरियाणा के एक गाँव सिसाना में हुआ था। उनकी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा स्थानीय हाई स्कूल में तथा उसके बाद जाट सीनियर सेकेण्डरी स्कूल में हुई। वह एक मेधावी छात्र थे। उन्होंने मेटिकुलेशन की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी। पढ़ाई के साथ-साथ वह खेल कूद में भी आगे रहते थे। होशियार सिंह पहले राष्ट्रीय चैम्पियनशिप के लिए बॉलीबाल की पंजाब कंबाइंड टीम के लिए चुने गए और वह टीम फिर राष्ट्रीय टीम चुन ली गई जिसके कैप्टन होशियार सिंह थे। इस टीम का एक मैच जाट रेजिमैटल सेंटर के एक उच्च अधिकारी ने देखा और होशियार सिंह उनकी नजरों में आ गय। इस तरह होशियार सिंह के फौज में आने की भूमिका बनी।
1957 में उन्होंने 2 जाट रेजिमेंट में प्रवेश लिया बाद में वह 3 ग्रेनेडियर्स में कमीशन लेकर अफसर बन गए। 1871 के युद्ध के पहले, होशियार सिंह ने 1965 में भी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अपना करिश्मा दिखाया था। बीकानेर सेक्टर में अपने क्षेत्र में आक्रमण पेट्रोलिंग करते हुए उन्होंने ऐसी महत्त्वपूर्ण सूचना लाकर सौंपी थी, जिसके कारण बटालियन की फ़तह आसानी से हो गई थी और इसके लिए उनका उल्लेख 'मैंशंड इस डिस्पैचेज़' में हुआ था। फिर, 1971 का युद्ध तो उनके लिए निर्णायक युद्ध था जिसमें उन्हें देश का सबसे बड़ा सम्मान प्राप्त हुआ।
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स्वतन्त्र भारत ने अब तक पाँच युद्ध लड़े जिनमें से चार में उसका सामना पाकिस्तान से हुआ। यह युद्ध शुरू भले ही पाकिस्तान ने किया हों, उनका समापन भारत ने किया और विजय का सेहरा उसी के सिर बँधा। इन चार युद्धों में एक युद्ध जो 1971 में लड़ा गया वह महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है क्योंकि इस लड़ाई ने पाकिस्तान को पराजित करके एक ऐसे नए राष्ट्र का उदय किया, जो पाकिस्तान का हिस्सा था और वर्षों से पश्चिम पाकिस्तान की फौजी सत्ता का अन्याय सह रहा था। वही हिस्सा, पूर्वी पाकिस्तान, 1971 के युद्ध के बाद बांग्लादेश बना। जब से पाकिस्तान बना, तब से पश्चिम पाकिस्तान सत्ता का केंद्र बना रहा। वह मुस्लिम बहुल इलाका था। दूसरी ओर पूर्वी पाकिस्तान, पूर्वी बंगाल था जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में आ गया था। यह हिस्सा बांग्ला भाषियों से भरा था। इस तरह पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान दो अलग-अलग भाषायों और संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते थे। इसका नतीजा यह था कि पश्चिम पाकिस्तान की मुस्लिम बहुल सत्ता का व्यवहार, अपने ही देश के एक हिस्से से बेहद अन्यायपूर्णक तथा सौतेला होता था, भले ही देश का हिस्सा ख़ासा वैभव और सम्पदा सरकार को देता था। 7 अगस्त 1970 को हुए पाकिस्तान के चुनाव में जनमत का एक नया चेहरा से सामने आया, जिसमें शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग ने बेहद भारी बहुमत से जीत हासिल की। स्थिति यह बनी कि आवामी लीग की सरकार सत्ता में आ जाए। इस बात के लिए पश्चिम पाकिस्तान का शासन कतई तैयार नहीं थ।
उस समय जुल्फिकार अली भट्टो प्रधानमंत्री थे, तथा याहना खान राष्ट्रपति पद पर बैठे थे। बांग्ला बहुल अवामी लीग की सरकार बनने से रोकने के लिए इन दोनों ने नई विजेता असेंबली के गठन पर बंदिश लगा कर रोक दिया। उनके इस निर्णय से बांग्ला समुदाय में इतना असंतोष फैला कि उसने एक आन्दोलन का रूप ले लिया। 3 मार्च, 1971 को ढाका में, जो कि पूर्वी पाकिस्तान का गढ़ था, वहाँ कर्फ्यू लगाया गया लेकिन उससे आन्दोलन पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उस समय साहिबजादा खान लेफ्टिनेंट गर्वनर तथा मार्शल लॉ के प्रशासक थे, उन्हें हटाकर लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खाँ को लाया गया। टिक्का खाँ उस दौर में बर्बरता की हद कायम हुई और उन्हें 'बाग्ला देश का बूचर' करार दिया गया। टिक्का खान ने ऑपरेशन ब्लिट्ज के नाम पर पूर्वी पाकिस्तान की बांग्ला भाषी जनता पर इतने जुर्म ढ़ाए, जिसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है।
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पाकिस्तान फौजें पूर्वी पाकिस्तान को गोलियों से भूनने लगीं। बमबारी से निहत्थे नागरिकों को तथा बांग्ला भाषी अर्ध सैनिक बलों को कुचला जाने लगा और हालत यह हो गई कि वहाँ से बांग्ला भाषी लोग भाग कर भारत में शरण पाने लगे। देखते-देखते लाखों शरणार्थी भारत की सीमा में घुस आए। उनके भोजन और आवास की जिम्मेदारी भारत पर आ गई। भारत ने जब पाकिस्तान से इस बारे में बात की, तो उसने इसे अपना अंदरूनी मामला बताते हुए भारत इससे अलग रहने को कहा, साथ ही शरणार्थियों की समस्या के बारे में पाकिस्तान ने हाथ झाड़ लिए। ऐसे में भारत के पास सिर्फ एक चारा था कि वह अपने सैन्य बल का प्रयोग करे जिससे पूर्वी पाकिस्तानी नागरिकों का वहाँ से भारत की ओर पलायन रुके। इस मजबूरी में भारत को उस सैनिक कार्यवाही में उतरना पड़ा जो अंततः भारत-पाक युद्ध में बदल गई।
होशियार सिंह का पराक्रम
इस युद्ध को भारत ने कई मोर्चो पर लड़ा जिसमें एक मोर्चे पर मेजर होशियार सिंह ने भी कमान संभाली। भारत की सैन्य दक्षता तथा शौर्य के आगे पाकिस्तान को घुटने टेकने पड़े और अंततः पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा समूचे पाकिस्तान से अलग होकर एक स्वतंत्र देश बन गए, जो बांग्लादेश कहलाया। इस युद्ध में भारत ने न केवल विजय हासिल की वरन् पूर्वी पाकिस्तान के निरीह, निहत्थे नागरिकों को बर्बरता का शिकार होने से भी बचाया। अब इसी युद्ध के मोर्चे की बात करें। शकरगढ़ पठार भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए एक महत्त्वपूर्ण ठिकाना था। भारत अगर इस पर कब्जा जमा लेता है, तो वह एक ओर जम्मू कश्मीर तथा उत्तरी पंजाब को सुरक्षित रख सकता है, दूसरी ओर पाकिस्तान के ठीक मर्मस्थल पर प्रहार कर सकता है। इसी तरह अगर पाकिस्तान इस पर कब्जा रखे तो वह भारत के भीतर घुसता आ सकता है। जाहिर है कि यह बेहद मौके का ठिकाना था जिस पर दोनों ओर के सैनिकों की नजर थी।
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शकरगढ़ पठार का 900 किलोमीटर का वह संवदेनशील क्षेत्र पूरी तरह से प्राकृतिक बाधाओं से भरा हुआ था जिस पर दुश्मन ने टैंक भेदी बहुत सी बारूदी सुरंगें बिछाई हुई थीं। 14 दिसम्बर 1971 को 3 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफिसर को सुपवाल खाई पर ब्रिगेड का हमला करने के अदेश दिए गए। इस 3 ग्रेनेडियर्स को जरवाल तथा लोहाल गाँवों पर कब्जा करना था। 15 दिसम्बर 1971 को दो कम्पनियाँ, जिनमें से एक का नेतृत्व मेजर होशियार सिंह संभाल रहे थे, हमले का पहला दौर लेकर आगे बढ़ीं। दोनों कम्पनियों ने अपनी फ़तह दुश्मन की भारी गोलाबारी, बमबारी तथा मशीनगन की बौछार के बावजूद हासिल कर ली। इन कम्पनियों ने दुश्मन के 20 जवानों को युद्ध बंदी बनाया और भारी मात्रा में हथियार और गोलाबारूद अपने कब्जे में ले लिया उन हथियारों में उन्हें मीडियम मशीनगन तथा रॉकेट लांचर्स मिले।
अगले दिन 16 दिसम्बर 1971 को 3 ग्रेनेडियर्स को घमासान युद्ध का सामना करना पड़ा। पाकिस्तान जवाबी हमला करके अपना गँवाया हुआ क्षेत्र वापस पाने के लिए जूझ रहा था। उसके इस हमले में उसकी ओर से गोलीबारी तथा बमबारी में कोई कमी नहीं छूट रही थी। 3 ग्रेनेडियर्स का भी मनोबल ऊँचा था। वह पाकिस्तान द्वारा किए जा रहे जवाबी हमलों को नाकाम किए जा रहे थे। 17 दिसम्बर 1971 को सूरज की पहली किरण के पहले ही दुश्मन की एक बटालियन ने बम और गौलीबारी से मेजर होशियार सिंह की कम्पनी पर फिर हमला किया। मेजर होशियार सिंह ने इस हमले का जवाब एकदम निडर होकर दिया और वह अपने जवानों को पूरे जोश से जूझने के लिए उकसाते रहे, उनका हौसला बढ़ाते रहे। हाँलाकि वह घायल हो गए थे, फिर भी वह एक खाई से दूसरी खाई तक जाते और अपने जवानों का हौसला बढ़ाते रहे। उन्होंने खुद भी एक मीडियम मशीनगन उस समय थाम ली, जब उसका गनर मारा गया। इससे उनकी कम्पनी का जोश दुगना हुआ और वह ज्यादा तेजी से दुश्मन पर टूट पड़े। उस दिन दुश्मन के 89 जवान मारे गए, जिनमें उनका कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल मोहम्मद अकरम राजा भी शमिल था। 35 फ्रंटियर फोर्स राइफल्स का यह ऑफिसर अपने तीन और अधिकारियों के साथ उसी मैदान में मारा गया था।
सारा दिन दुश्मन की बटालियन की फौज के बचे-कुचे सैनिक मेजर होशियार सिंह की फौज से जूझते रहे। शाम 6 बजे आदेश मिले कि 2 घण्टे बाद युद्ध विराम हो जाएगा। दोनों बटालियन इन 2 घण्टों में ज्यादा-से-ज्यादा वार करके दुश्मन को परे कर देना चाहते थे। जब युद्ध विराम का समय आया उस समय तक मेजर होशियार सिंह की 3 ग्रेनेडियर्स का एक अधिकारी तथा 32 फौजी मारे जा चुके थे। इसके अलावा 3 अधिकारी 4 जूनियर कमीशंड अधिकारी तथा 86 जवान घायल थे। तभी मेजर होशियार सिंह की बटालियन को युद्ध विराम के बाद जीत का सेहरा पहनाया गया। 17 दिसम्बर 1971 के युद्ध विराम के बार बांग्लादेश के उदय की वार्ता शुरू हुई मेजर
होशियार सिंह को परमवीर चक्र प्रदान किया गया और देश अरुण खेत्रपाल की स्मृति में मौन भी हुआ, जो बस एक दिन पहले वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
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संपादक की डेस्क से
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