1971 भारत पाकिस्तान युद्ध में पश्चिम पाकिस्तान में भीषण युद्ध चल रहा था. पाकिस्तान ने कश्मीर को पंजाब से काटने के लिए शकरपुर में बसंतर नदी नदी पर अपनी शक्ति को इतना मजबूत कर लिया था वह लगभग अजेय दुर्ग सा था. अखनूर के क्षेत्र में लडती भारतीय सेना के लिए आगे बढ़ना बहुत मुश्किल था. भारतीय सेना के पास एक ही उपाय था की बसंतर नदी को पार करके पाकिस्तान की सीमा में घुसकर सीधा शत्रु पर हमला करे.
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पाकिस्तानी टैंक तेजी से बसंतर नदी की और बढ़ रहे थे जिसके सामने भारतीय सेना के 3 टैंक जिसमे कर्नल मल्होत्रा, लेफ्टीनेंट अहलावत और सेकंड लेफ्टीनेंट अरुण खेत्रपाल भारतीय सेना की कमान संभाल रहे थे. 3 टैंको के भीषण आक्रमण से 7 पाकिस्तानी टैंक ध्वस्त हो गए परन्तु जिसमे कर्नल मल्होत्रा और लेफ्टीनेंट अहलावत बुरी तरह से जख्मी हो गए. ऐसे समय में पूरी जिम्मेदारी अरुण खेत्रपाल के कंधो पर आ गई. उन्हें वापस लौटने का आदेश मिला लेकिन उस वीर ने वापस आने से मना कर दिया और दुश्मन के 3 टैंको से अकेले ही भीड़ गए.दुश्मन टैंक के हमले से अरुण क्षेत्रपाल के टैंक में आग लग गई। उन्हें लौटने के आदेश मिल गए, पर अरुण के दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था। उन्होंने निडरता से संदेश दियाः
“मेरी बंदूक चल रही है, मैं अभी नही लौटूँगा, आउट।”
3 टैंकों से अकेले घिरे अरुण क्षेत्रपाल ने वायरलेस बंद कर दिया। देखते ही देखते पाकिस्तान के दो टैंक को उन्होंने अकेले ही उड़ा दिया। लेकिन तभी एक गोला उनके टैंक पर आकर गिरा।
अरुण बुरी तरह घायल हो गए उनके दोनों पैर कट गए। टैंक के ड्राईवर ने टैंक वापस लेने को कहाँ लेकिन उन्होंने ड्राईवर को मैदान में डटे रहने का आदेश दिया और शत्रु का आखरी टैंक जब उनसे मात्र 100 मीटर की दूरी पर था तब इस वीर ने दुश्मन पर मशीनगन और गोलों की बरसात कर दी. लेफ्टीनेंट अरुण खेत्रपाल के प्रहार से दुश्मन का अंतिम टैंक भी नष्ट हो गया. लेफ्टीनेंट अरुण खेत्रपाल के अदभुत शौर्य और पराक्रम के कारण भारत को एक ऐसी जीत मिली जिससे 71 के युद्ध का पासा ही पलट गया.
बसंतर की जीत से पाकिस्तान के हौसले पस्त हो गये. भारतीय सेना नें इस भीषण युद्ध में पाकिस्तान के 45 टैंको के परखच्चे उड़ा दिए और दस पर कब्ज़ा का लिया. जिसके सामने भारत को मात्र दो टैंक गवांने पड़े. सेकंड लेफ्टीनेंट अरुण खेत्रपाल के अद्भुत शौर्य और पराक्रम के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. नेशनल डिफेंस एकेडमी ने अरुण क्षेत्रपाल के नाम पर अपने परेड ग्राउंड का नाम खेत्रपाल ग्राउंड रखा है.
अरुण खेत्रपाल का पैतृक परिवार सरगोधा से जुड़ा हुआ था, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया। पद मुक्त हो जाने के बाद क़रीब अस्सी वर्ष की आयु में अरुण के पिता ने यह इच्छा जाहिर की कि वह अपनी पैतृक भूमि सरगोधा जाकर कुछ समय बिताएँ। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए इसकी व्यवस्था हुई और उनका वीसा आदि जारी किया गया।
वर्ष 2001 में अरुण के पिता ब्रिगेडियर एम.एल. क्षेत्रपाल अपने जन्मस्थान पाकिस्तान गए थे, और उनकी मेजबानी कर रहे थे, पाकिस्तानी ब्रिगेडियर नसीर। वह पाक सेना की 13 लैंसर्स के ब्रिगेडियर के. एम. नासर थे। इनके अंतरंग आतिथ्य ने खेत्रपाल को काफ़ी हद तक विस्मित भी कर दिया था। जब खेत्रपाल की वापसी का दिन आया तो नासर परिवार के लोगों ने खेत्रपाल के परिवार वालों के लिए उपहार भी दिए और ठीक उसी रात ब्रिगेडियर नासर ने ब्रिगेडियर खेत्रपाल से कहा कि वह उनसे कुछ अंतरंग बात करना चाहते हैं।“यह आपके बेटे के संबंध में है, जो निश्चित रूप से भारत का हीरो है। हालांकि, उस दिन (युद्ध के दिन) हम दोनों ही सैनिक थे, एक-दूसरे से अंजान, अपने-अपने देशों की सुरक्षा और सम्मान के लिए लड़ रहे थे। मुझे आपको बताने में बेहद अफ़सोस हो रहा है कि आपके बेटे की मृत्यु मेरे हाथों हुई। अरुण का साहस आदर्श था और वह बेखौफ़ होकर अपनी जान की परवाह किए बगैर अपने टैंक के साथ बढ़ रहा था। और आख़िर में सिर्फ़ हम दोनों बचे। हम दोनों एक-दूसरे के सामने थे। हम दोनो ने ही गोले दागे। पर यह तो किस्मत थी मुझे जीना था और उसे ‘अमर’ होना था।”
खेत्रपाल स्तब्ध रह गए थे। नासर का कहना जारी रहा था। नासर के शब्दों में एक साथ कई तरह की भावनाएँ थी। वह उस समय युद्ध में पाकिस्तान के सेनानी थे इस नाते अरुण उनकी शत्रु सेना का जवान था, और उसे मार देना उनके लिए गौरव की बात थी, लेकिन उन्हें इस बात का रंज भी था कि इतना वीर, इतना साहसी, इतना प्रतिबद्ध युवा सेनानी उनके हाथों मारा गया। वह इस बात को भूल नहीं पा रहे थे।
नासर और खेत्रपाल की इस बातचीत के बाद, दोनों के बीच सिर्फ सन्नाटा रह गया था। लेकिन खेत्रपाल के मन में इस बात का संतोष और गौरव ज़रूर था कि उनका बेटा इतनी बहादुरी से लड़ता हुआ शहीद हुआ कि शत्रु पक्ष भी उसे भूल नहीं पाया और शत्रु के मन में भी उनके बेटे को मारने का दुख बना रहा, भले ही यही उसका कर्तव्य था।
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यह शब्द पाकिस्तानी ब्रिगेडियर ख्वाजा मोहम्मद नसीर के हैं। जो उन्होंने ‘परमवीर चक्र’ लेफ्टिनेंट अरुण क्षेत्रपाल के पिता ब्रिगेडियर एम.एल. क्षेत्रपाल से कहे थे।
किसी भी पिता के लिए यह गर्व की बात होगी कि दुश्मन सेना का ब्रिगेडियर उसके बेटे की ‘अमर शौर्य गाथा’ बयान कर रहा है।
1971 के भारत-पाकिस्तान के बसंतर की ऐतिहासिक युद्ध के हीरो रहे ‘परमवीर चक्र’ लेफ्टिनेंट अरुण क्षेत्रपाल उस समय मात्र 21 साल के थे।
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संपादक की डेस्क से
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