अर्देशिर तारापोरे का जन्म 18 अगस्त 1923 को बम्बई (अब मुम्बई), महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पुरखों का सम्बन्ध छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना से था जिन्हें वीरता के पुरस्कार स्वरूप 100 गाँव दिए गए थे। उनमें एक मुख्य गाँव का नाम तारा पोर था। इसलिए यह लोग तारापोरे कहलाए। बहादुरी की विरासत लेकर जन्मे तारापोरे की प्रारम्भिक शिक्षा सरदार दस्तूर व्वायज़ स्कूल पूना में हुई, जहाँ से उन्होंने 1940 में मैट्रिक पास किया। उसके बाद उन्होंने फौज में दाखिला लिया।
उनका सैन्य प्रशिक्षण ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल गोलकुंडा में पूरा हुआ, और वहाँ से यह बैंगलोर भेज दिए गए। उन्हें 1 जनवरी1942 को बतौर कमीशंड ऑफिसर 7वीं हैदराबाद इंफेंटरी में नियुक्त किया गया। आदी ने यह नियुक्ति स्वीकार तो कर ली लेकिन उनका मन बख्तरबंद रेजिमेंट में जाने का था, जिसमें टैंक द्वारा युद्ध लड़ा जाता है। वह उसमें पहुँचे भी लेकिन कैसे, यह प्रसंग भी रोचक है।
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एक बार उनकी बटालियन का निरीक्षण चल रहा था जिसके अधिकारी प्रमुख मेजर जरनल इंड्रोज थे। इन्ड्रोज स्टेट फोर्सेस के कमाण्डर इन चीफ भी थे। उस समय अर्देशिर तारापोरे की सामान्य द्रेनिंग चल रही थी, जिसमें हैण्ड ग्रेनेड फेंकने का अभ्यास जारी था। उसमें एक रंगरूट ने ग्रेनेड फेंका, जो ग़लती से असुरक्षित क्षेत्र में गिरा। उसके विस्फोट से नुकसान की बड़ी सम्भावना थी। ऐसे में, अर्देशिर तारापोरे ने फुर्ती से छलाँग लगाई और उस ग्रेनेड को उठकर सुरक्षित क्षेत्र में उछाल दिया। लेकिन इस बीच वह ग्रेनेड फटा और उसकी लपेट में आदी घायल हो गए। जब आदी ठीक हुए तो इंड्रोज ने उन्हें बुला कर उनकी तारीफ की। उसी दम आदी ने आर्म्ड रेजिमेंट में जाने की इच्छा प्रकट लांसर्स में लाए गए।
आदी, यानी लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे, 11 सितम्बर1965 को स्यालकोट सेक्टर में थे और पूना हॉर्स की कमान सम्हाल रहे थे। चाविंडा को जीतना 1 कोर्पस का मकसद गए। 11 सितम्बर, 1965 को तारापोरे को स्यालकोट पाकिस्तान के ही फिल्लौरा पर अचानक हमले का काम सौंपा गया। फिल्लौरा पर एक तरफ से हमला करके भारतीय सेना का इरादा चाविंडा को जीतने का था। इस हमले के दौरान तारापोरे अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ ही रहे थे कि दुश्मन ने वज़ीराली की तरफ से अचानक ज़वाबी हमले में जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी। तारापोरे ने इस हमले का बहादुरी से सामना किया और अपने एक स्क्वेड्रन को इंफंटरी के साथ लेकर फिल्लौरा पर हमला बोल दिया। हालाँकि तारापोरे इस दौरान घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने रण नहीं छोड़ा और जबरदस्त गोलीबारी करते हुए डटे रहे। 14 सितम्बर को 1 कोर्पस के ऑफिसर कमांडिंग ने विचार किया कि जब तक चाविंड के पीछे बड़ी फौज का जमावड़ा न बना लिया जाए, तब तक शहर तक कब्जा का पाना आसान नहीं होगा। इस हाल को देखते हुए उन्होंने 17 हॉर्स तथा 8 गढ़वाल राइफल्स को हुकुम किया कि 16 सितम्बर को जस्सोरान बुंतुर डोगरांडी में इकठ्टा हो।
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16 सितम्बर 1965 को ही 17 हार्स ने 9 डोगरा की एक कम्पनी के साथ मिलकर जस्सोरान पर कब्जा कर लिया, हालाँकि इससे उनका काफ़ी नुकसान हुआ। उधर 8 गढ़वाल कम्पनी बुंतूर अग्राडी पर तरफ पाने में कामयाब हो गई। इस मोर्चे पर भी हिन्दुस्तानी फौज ने बहुत कुछ गँवाया और 8 गढ़वाल कमांडिंग ऑफिसर झिराड मारे गए। 17 हॉर्स के साथ तारापोरे चाविंडा पर हमला बनाते हुए डटे हुए थे। मुकाबला घमासान था। इसलिए 43 गाड़ियों के साथ एक टुकड़ी को हुकुम दिया गया कि वह भी जाकर चाविंडा के हमले में शामिल हो जाए लेकिन वह टुकड़ी वक्त पर नहीं पहुँच पाई और हमला रोक देना पड़ा। उधर तारापोरे की टुकड़ी उनके जोश भरे नेतृत्व में जूझ रही थी। उन्होंने दुश्मन से साठ टैंकों को बर्बाद किया था जिसके लिए सिर्फ नौ टैंक गंवाने पड़े थे। इसी सूझ भरे युद्ध जब तारापोरे टैंक की लड़ाई लड़ रहे थे, तभी वह दुश्मन के निशाने पर आ गए और उन्होंने दम तोड़ दिया। तारापोरे तो शहीद हो गए, लेकिन उनकी सेना इससे दुगने जोश से भर उठी और उसकी लड़ाई जारी रही।
भारत सरकार ने लेफ्टिनेंट अर्नल ए. बी. तारापोरे को परमवीर चक्र से मरणोपरान्त सम्मानित किया। वह सचमुच देश का गौरव थे। उससे भी बड़ी बात एक और रही। पाकिस्तान मेजर आगा हुमायूँ खान और मेजर शमशाद ने चाविंडा के युद्ध पर एक आलेख लिखा, जो पाकिस्तान के डिफेंस जनरल में छपा। उसमें इन दोनों पाकिस्तानी अधिकारियों ने लेफ्टिनेंट अर्नल ए. बी. तारापोरे के विषय में लिखा, कि वह एक बहादुर और अजेय योद्धा थे, जिन्होंने पूरे युद्ध काल में 17 पूना हॉर्स का बेहद कुशल संचालन किया।
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