जीवन में मिलने वाले हर दुःख , घटने वाली हर गलती के बाद हमारी अंतरात्मा हमें पुकार -पुकारकर यही कहती है कि उठो , जागो , आगे बढ़ो ! रुको नहीं , ठहरो नहीं । कदम को थमने मत दो। अपने उत्थान के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहो । हमारे अंदर उपस्थित आत्मदेव , उसी दिन की प्रतीक्षा में निरत प्रतीत होते हैं जब अंधकार की इस रात्रि का अंत होगा एवं नवप्रकाश से सुसज्जित उत्थान के मार्ग के हम अनुगामी बनेंगे। फूल को खिलने के लिए नहीं कहना पड़ता ; नदी को बहने के लिए नहीं कहना पड़ता ; बादल को बरसने के लिए नहीं कहना पड़ता ; आश्चर्य ! मनुष्य को मानवोचित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कहना पड़ता है , याद दिलाना पड़ता है। समय रहते हम भी चेतें । याद करें कि हम किस उद्देश्य के साथ धरती पर आए थे? क्यों हम अपने जीवन -पथ से भटककर बैठे हैं? क्यों हम सहज स्वाभाविक क्रम में अपने जीवन उद्देश्य की ओर नहीं बढ़ पाते ? अपनी संभावनाओं को हमे भूल नहीं जाना है । प्रकृति के कण - कण से यह शिक्षा लेनी है कि जीवन में पूर्णता कैसे प्राप्त करें ? अपने जीवन को विकसित कैसे करें ? स्वयं को समर्पित कैसे करें ? जो इस समर्पण के भाव से स्वयं को विराट ब्रह्म को समर्पित कर देता है , वो अपने जीवन लक्ष्य को पा लेता है। उसे पा लेने तक रुकना नहीं है , ठहरना नहीं है_ बस , आगे और आगे बढ़ते ही जाना है ।
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