मार्च 2017 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मुसलमानों के बीच प्रचलित त्वरित तीन तलाक,हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाओं की संवैधानिक वैधता की जाँच के लिए पांच जजों के एक संवैधानिक बेंच के गठन का निर्णय लिया.
संवैधानिक बेंच जिसमें विभिन्न सम्प्रदायों के मुख्य न्यायाधीश, जे एस खधर (सिख), जस्टिस कुरियन जोसेफ (ईसाई), जस्टिस रोहिंटन नरीमन (पारसी), न्याय उदय ललित (हिंदू) और न्यायमूर्ति अब्दुल नज़र (मुस्लिम) शामिल हैं, ने विवादास्पद ट्रिपल तलाक सहित इस्लामी प्रथाओं पर बहस के उपरांत 11 मई 2017 को अंतिम बहस की सुनवाई शुरू की.
क्वेस्ट फॉर इक्वालिटी वर्सेज जमियत उलेमा ए हिन्द( समानता की खोज बनाम जमियत उलेमा ए हिन्द) के तहत तीन तलाक के मुद्दों से सम्बन्धित सात याचिकाओं पर सुनवाई के लिए इस बेंच का गठन शीर्ष अदालत द्वारा किया गया था.
अन्य 6 याचिका खुरान सननाथ सोसाइटी, शायरा बानो, अफेरीन रहमान, गुलशन परवीन, इशरत जहान और अतिया सबरी द्वारा दायर की गयी थी.
17 मई 2017 को इस बेंच ने सुनवाई समाप्त कर इस मुद्दे पर अपना फैसला सुरक्षित रखा.
तीन तलाक क्या है और यह विवाद में क्यों है ?
• हिंदू धर्म और ईसाई धर्म,जहाँ शादी को एक धार्मिक संस्कार और रीती के रूप में माना जाता है, के विपरीत मुसलमानों के बीच यह एक सामाजिक अनुबंध है.चूंकि यह एक सामाजिक अनुबंध है, इसलिए मुस्लिम शरीयत (इस्लामी कानून) शादी को तलाक के जरिये समाप्त करने का रास्ता प्रदान करता है.
• तलाक एक अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है,बंधन से मुक्त कर देना. वस्तुतः शरीयत विवाह को बचाने और शादी की सुरक्षा की वकालत करता है.शरीयत के अनुसार,तलाक एक दोतरफा प्रक्रिया है जिसमें पुरुष महिला से तथा महिला पुरुष से तलाक ले सकते हैं. इसे खुल्ला कहा जाता है.
• तीन तलाक- इसे तीन तलाक इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसके अंतर्गत तीन महीने तक प्रत्येक माहवारी चक्र के दौरान तीन बार क्रमशः तलाक दिया जाता है.
• सामन्य शब्दों में पति को तलाक लेने के लिए अपनी पत्नी से प्रत्येक माहवारी चक्र के दौरान तीन बार तलाक तलाक तलाक कहना चाहए. तीन महीने का समय देने का मुख्य कारण गुस्से या आवेग वश लिए गए निर्णय पर विचार करने तथा सुलह करने की मंशा पर पुनः विचार करने की छुट देना है.
• त्वरित तीन तलाक : पैगंबर मोहम्मद के समय तलाक की प्रथा और अधिक महत्वपूर्ण हो गयी और उन्होंने कहा कि जब एक साथ रहना असंभव हो गया हो तो तीन तलाक सही रास्ता है.
• इस्लाम के दूसरे खलीफा उमर इब्न अल-खट्टाब के समय एकमात्र उदाहराण( तलाक की एक घटना सामने आने पर) से तीन तलाक की परंपरा को विशेष परिस्थितियों में स्वीकार किया गया तथा इसको पूरी तरह संस्थागत कर दिया गया.
• तीन तलाक विवाद :अपनी पत्नियों से छुटकारा पाने के लिए हालिया दशकों में शादीशुदा पुरुषों द्वारा इसका दुरुपयोग किये जाने के कारण यह विवाद में आ गया है.कभी कभी तो पुरुषों द्वार मैसेज और ई मेल के जरिये भी अपनी पत्नियों को तलाक दिए जाने के उदाहरण देखने को मिलते हैं.
• तीन तलाक के अंतर्गत सुलह या अपना पक्ष रखने का मौका दिए बैगैर तलाक देना सामजिक स्तर पर चिंता का विषय है. पूरे देश के विभिन्न अदालतों में इससे सम्बंधित कई याचिकाएं दायर की गयी हैं.
• विभिन्न मामलों में न्यायपालिका ने मुस्लिम महिलाओं के प्रति सहानुभूति जताते हुए उनको पीड़ित करने वाले तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया है. दिसंबर 2016 में इलाहबाद उच्च न्यायालय ने त्वरित तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया है.
• 2002 के शामीम अरा बनाम यू पी स्टेट केस के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक की जाँच करने हेतु स्पष्ट कदम उठाते हुए इसके लिए उचित कारण देने और पूर्व सामंजस्य पर गौर करने की बात की.
• तीन तलाक के वर्तमान मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी), सलमान खुर्शीद और अन्य याचिकाकर्ताओं से इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा है.
इस मुद्दे पर सरकार का रुख
तीन तलाक के मुद्दे पर अपने रुख को स्पष्ट करते हुए अप्रैल 2017 में केंद्र सरकार ने अदालत के समक्ष अपने विचार लिखित रूप में कुछ इस तरह स्पष्ट किया है –
• त्वरित तीन तलाक एक सामाजिक प्रथा है (यह एक धार्मिक कृत्य (प्रथा) नहीं है) इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 25, जो देश के नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है, के तहत संरक्षित नहीं है.
• लैंगिक समानता और महिलाओं की गरिमा संवैधानिक मूल्यों में निहित है. इसलिए इस पर कोई समझौता नहीं हो सकता है.
• त्वरित तीन तलाक,हलाला और बहुविवाह ये सभी मुस्लिम समाज में व्याप्त एक सामाजिक प्रथा है जो मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति और गरिमा को प्रभावित करती है. ये प्रथाएं उन्हें अपने समाज के पुरुषों,अन्य समुदायों की महिलाओं और भारत के बाहर मुस्लिम महिलाओं के समक्ष असमान और कमजोर बनाती है.
• यद्यपि इन प्रथाओं से केवल कुछ महिलाएं ही प्रभावित होती हैं लेकिन हर मुस्लिम महिला हमेशा इन प्रथाओं के डर के शाये में अपना जीवन व्यतीत करती है. इससे उनकी सामाजिक स्थिति,उनकी खुद की इच्छा,उनका आचरण(व्यवहार) और यहाँ तक कि भारतीय संविधान के अनुछेद 21 द्वारा प्रदत्त गरिमा पूर्ण जीवन जीने के अधिकार का हनन होता है.
• संक्षेप में सरकार ने निकाह,हलाला(बिना किसी दूसरे आदमी के साथ विवाह किए तलाकशुदा पति से विवाह करने की अपील) और बहुविवाह जैसी विनाशकारी प्रथाओं के विरूद्ध अपना रुख व्यक्त किया है और इन प्रथाओं को समाप्त करने की अपील की है.
• प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने अक्टूबर 2016 से इस प्रथा के खिलाफ स्पष्ट रुख अपनाते हुए इस मुद्दे पर अन्य हितधारकों के साथ विचार विमर्श किये हैं
इस मुद्दे पर ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का दृष्टिकोण
• अक्टूबर 2016 में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भारतीय कानून आयोग के समान नागरिक संहिता द्वारा जारी प्रश्नावली तथा उसका समर्थन करने वाले समूहों का बहिष्कार करना शुरू किया.
• प्रश्नावली में आयोग ने तीन तलाक की प्रथा पर जनता की राय मांगी थी जिसमें इसके उन्मूलन और उपयुक्त संशोधन के साथ इसे बनाए रखने की बात की गयी थी.
• ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों में किसी भी प्रस्तावित परिवर्तन का विरोध किया है और इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के प्रस्ताव को मानने से इनकार किया है. बोर्ड का कहना है कि विश्वास और ऐतिहासिक प्रथा पर आधारित धर्म के मामले में न्यायिक विधायिका के माध्यम से व्यक्तिगत कानून में संशोधन करना असंगत प्रक्रिया है और हम इसका विरोध करते हैं.
• ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह तर्क दिया है कि अनुच्छेद 372 के तहत संविधान के निर्माण से पहले लागू होने वाले कानूनों का निरंतर प्रवर्तन किया जा सकता है. अनुच्छेद 372 मुस्लिम पर्सनल लॉ के कानूनों के लिए सुरक्षा ढाल है और मुस्लिम पर्सनल लॉ इस ऐतिहासिक मुस्लिम प्रथा की अनुमति देता है.
• मई 2017 की शुरुआत में बोर्ड द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किये गए एक प्रस्ताव से ऐसा लगता है कि बोर्ड के रुख में कुछ बदलाव आया है.
• एक हलफनामे में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा था कि जो लोग एक ही बार में तलाक देकर छुटकारा चाहते हैं उनका सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा और काजियों को यह सलाह दी जाएगी की निकाह के समय वे पुरुषों और महिलाओं को पूरी तरह समझा दें कि तीन तलाक जैसी प्रथाओं का सहारा न लें. बोर्ड ने यह भी कहा है कि काजियों को यह सलाह दी जाएगी कि वे महिला और पुरुष के निकाह के समय उनके निकाहनामा में भी इसे एक शर्त के रूप में शामिल करें ताकि तीन तलाक की प्रथा को समाप्त किया जा सके.
• तीन तलाक से जुड़े मतभेदों को सुलझाने के लिए बोर्ड ने निम्न तीन चरणों की प्रक्रिया का सुझाव दिया है -
चरण 1 : यदि दंपति में मतभेद है तो उन्हें पहले शरीयत के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए एक दूसरों की गलतियों को अनदेखा कर सुलह करने की कोशिश करनी चाहिए.
चरण 2 : यदि विवाद पारस्परिक रूप से हल नहीं हो पाए और उसका कोई वांछित परिणाम नहीं निकले तो अस्थायी रूप से उन्हें कुछ दिनों के लिए अलग हो जाना चाहिए.
चरण 3:पहले दो चरणों में विफलता हाथ लगने पर दोनों परिवारों के वरिष्ठ सदस्यों द्वारा उनको समझाने का प्रयास करना चाहिए या फिर मतभेदों को समाप्त करने के लिए दोनों पक्ष की तरफ से मध्यस्थ नियुक्त किया जाना चाहिए.
यदि विवाद अभी भी नहीं सुलझ सके तो पति अपनी पत्नी की शुद्धता के दौरान एक तलाक दे सकता है और जब तक उसकी इद्दत की अवधि समाप्त नहीं हो जाती उसे नहीं छोड़ सकता है.
यदि प्रतीक्षा अवधि (इद्दत) के दौरान एक अनुकूल स्थिति उत्पन्न होती है और उनकी समस्याएं सुलझ जाती हैं तो वे दोनों एक दूसरे के साथ सुलह कर पति पत्नी के रूप में रह सकते हैं. यदि इद्दत के दौरान सुलह नहीं हो पाती है तो प्रतीक्षा अवधि के बाद यह
शादी स्वतः समाप्त हो जाएगी.
पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता का वकालत करने वाले शरिया कानून के प्रावधानों और इस्लाम की व्यापक परंपरा के बीच एक संतुलन बनाये रखने के लिए उपरोक्त तीन चरण प्रक्रिया का सुझाव ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने दिया है.
इस मुद्दे पर सलमान खुर्शीद के विचार
• अदालती सलाहकार सलमान खुर्शीद ने अदालत में निम्नांकित बिदुओं पर प्रकाश डाला है.
• इस्लाम ने पुरुषों और महिलाओं को बराबर माना है. परिणामस्वरूप, पति और पत्नी दोनों ही अपने कार्यों के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं.
• विवादास्पद इस्लामी तलाक व्यवस्था को उचित नहीं ठहराया जा सकता और ना ही इसे संवैधानिक मान्यता दी जा सकती है.
• ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तलाक से सम्बंधित इस्लाम के अलग अलग दर्शनों के विषय में कोर्ट को सही जानकारी देने का सर्वश्रेष्ठ साधन है.
• हालाँकि वे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के इस विचार,कि अवांछनीय तीन तलाक पूरी तरह से मुस्लिमों के विश्वास का मामला है,पूरी तरह से असहमत हैं.
• खुर्शीद ने सुझाव दिया कि अदालत को इस मुद्दे पर अलग अलग दृष्टिकोण से विचार करते हुए एक ऐसा निर्णय लेना चाहिए जो सभी हितधारकों को सामान रूप से स्वीकार्य हो.
विदेशों में क्या स्थिति है ?
कई इस्लामिक देशों ने इस प्रथा पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया है या फिर मध्यस्थता जैसे कुछ प्रावधानों को इसमें सम्मिलित करके सुधार करने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए 1956 में विवाह और परिवार के कानूनों पर 7 सदस्यीय कमीशन की सिफारिशों के आधार पर पाकिस्तान ने त्वरित तीन तलाक की प्रथा को समाप्त कर दिया और यह निर्धारित किया कि पति को लगातार तीन मासिक धर्म चक्रों के दौरान ही तलाक लेना होगा. पाकिस्तान का यह आदेश मिस्र मॉडल पर आधारित था.
इंडोनेशिया में तलाक अदालत के निर्णय द्वारा ही लिया जा सकता है.अदालत द्वारा प्राधिकृत नहीं होने के कारण पति और पत्नी के बीच स्वयं तलाक के लिए समझौता नहीं किया जा सकता है.
इसी तरह मुस्लिम बहुमत वाले देश जैसे इराक, तुर्की, ट्यूनीशिया और बांग्लादेश में महिलाओं की पीड़ा को कम करने के लिए तलाक प्रक्रिया में उपयुक्त संशोधन किए गए हैं.
इस समस्या का समाधान क्या है ?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में यह स्पष्ट लिखा गया है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष और प्रजा तांत्रिक देश है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत जैसे बहुसंख्यक समाज वाले देश में नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों और उनके धार्मिक आस्था और विश्वास के बीच संतुलन बनाए रखना एक चुनौती पूर्ण कार्य है.
मुस्लिम समाज में व्याप्त तीन तलाक की प्रथा को समाप्त कर मुस्लिम महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक प्रगति की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए सभी राजनीतिक,प्रशासनिक और सिविल सोसाइटी द्वारा एक साथ मिलकर सशक्त कदम उठाने का यह एक उचित समय है