Monday, December 11, 2017

लक्ष्य भी है मंज़र भी है

लक्ष्य भी है मंज़र भी है
चुभता मुश्किलों का खंज़र भी है
प्यास भी है आस भी है
ख्वाबो का उलझा एहसास भी है
रहता भी है सहता भी है
बनकर दरिया सा बहता भी है
पाता भी है खोता भी है
लिपट लिपट कर रोता भी है
थकता भी है चलता भी है
कागज़ सा दुखो में गलता भी है
गिरता भी है संभलता भी है
सपने फिर नए बुनता भी है
पानी को बर्फ में
बदलने में वक्त लगता है
ढले हुए सूरज को
निकलने में वक्त लगता है
थोड़ा धीरज रख
थोड़ा और जोर लगाता रह
किस्मत के जंग लगे दरवाजे को
खुलने में वक्त लगता है
कुछ देर रुकने के बाद
फिर से चल पड़ना दोस्त
हर ठोकर के बाद
संभलने में वक्त लगता है
बिखरेगी फिर वही चमक
तेरे वजूद से तू महसूस करना
टूटे हुए मन को
संवरने में थोड़ा वक्त लगता है
जो तूने कहा
कर दिखायेगा रख यकीन
गरजे जब बादल
तो बरसने में वक्त लगता है
जो मुस्कुरा रहा है उसे दर्द ने पाला होगा
जो चल रहा है उसके पाँव में ज़रूर छाला होगा
बिना संघर्ष के चमक नहीं मिलती
जो जल रहा है तिल तिल उसी दीए में उजाला होगा
जीत निश्चित हो तो कायर भी लड़ सकते हैं बहादुर वे कहलाते हैं
जो हार निश्चित हो फिर भी मैदान नहीं छोड़ते
शाम सूरज को ढ़लना सिखाती है शमा परवाने को जलना सिखाती है
गिरने वाले को होती तो है तकलीफ पर ठोकर ही इंसान को चलना सिखाती है
लहरों का शांत देखकर ये मत समझना की समंदर में रवानी नहीं है
जब भी उठेंगे तूफ़ान बनकर उठेंगे अभी उठने की ठानी नहीं है
खोल दे पंख मेरे कहता है परिंदा अभी और उड़ान बाकी है
जमीं नहीं है मंजिल मेरी अभी पूरा आसमान बाकी है
लहरों की ख़ामोशी को समंदर की बेबसी मत समझ ऐ नादाँ
जितनी गहराई अन्दर है बाहर उतना तूफ़ान बाकी है ।

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